ऊपर की पत्तियाँ छोटे-छोटे भागों में विभक्त होकर पतले पर्ण फलकों में बदल जाती है। इसके पुष्प छोटे आकार के छत्रक में आते हैं।


पत्ती वाली सब्जियों में धनिया का प्रमुख स्थान है। इसकी मुलायम पत्तियाँ को चटनी एवं सॉस आदि बनाने में प्रयोग किया जाता है। इसकी हरी पत्तियों को सब्जी एवं अन्य व्यजंनों को सुगन्धित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके दाने को मसाले के रूप् में प्रयोग किया जाता है। धनिया की पत्तियाँ पोषण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसमें पर्याप्त मात्रा में विटामिन सी, कैरोटीन एवं अन्य खनिज तत्व पाये जाते हैं।


जलवायु एवं भूमि

धनिया की खेती शीतोष्ण एवं उपोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जाती है। बसंत ऋतु में पाला पडऩे से पौधों को क्षति होने की संभावना रहती है। इसका अंकुरण होने के लिए 20 डिग्री से.ग्रे. तापमान की आवश्यकता होती है। धनिया की खेती के लिए दोमट मृदा सर्वोत्तम होती है। ऐसी भूमि जिसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा ज्यादा हो एवं जल निकास की भी उचित व्यवस्था हो, इसकी खेती के लिए उचित होती है। इसकी खेती के लिए भूमि का पी.एच. मान 6.5-8 के बीच होना चाहिए, क्योंकि ज्यादा अम्लीय एवं लवणीय मृदा इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है ।


खाद एवं उर्वरक

धनिया के प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई के लिए 100-150 कुंटल सड़ी हुई गोबर की खाद, 80 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फास्फोरस एवं 50 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है। खेत की तैयारी के समय गोबर की खाद को मिट्टी में भली प्रकार से मिला देते हैं। नत्रजन की दो तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को अन्तिम बार जुताई से पहले खेत में देना चाहिए। नत्रजन की शेष एक तिहाई मात्रा को दो बराबर भाग में बाँटकर पहली बार बुआई के 30-35 दिन बाद देना चाहिए एवं शेष भाग को फूल निकलते समय देना चाहिए। धनिया की फसल में कार्बनिक खादों के प्रयोग से अच्छे परिणाम मिलते हैं, जबकि ऐसे खेत में जिनमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा कम होती है, इससे पौधों की बढ़वार प्रभावित होती है।


बुवाई

धनिया को पत्ती के रूप में उपयोग करने के लिए इसको सालभर उगाया जाता है। जबकि बीज के उद्देश्य से उत्तरी व मध्य भारत में इसकी एक फसल ली जाती है जिसकी बुआई अक्टूबर में करते हैं। जबकि दक्षिणी भारत में इसकी दो फसल ली जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बुवाई मार्च में करते हैं। कर्नाटक एवं तमिलनाडु में मई माह में बुआई करते है।


बीज दर

सिंचित अवस्था में 15-20 कि.ग्रा./हे. बीज तथा असिंचित में 25-30 कि.ग्रा./हे. बीज की आवश्यकता होती है।


बीजोपचार

भूमि एवं बीज जनित रोगो से बचाव के लिये बीज को कार्बेंन्डाजिम+थाइरम (2:1)3 ग्रा./कि.ग्रा. या कार्बोक्जिन 37.5 प्रतिशत+थाइरम 37.5 प्रतिशत 3 ग्रा./कि.ग्रा.+ट्राइकोडर्मा विरिडी 5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। बीज जनित रोगों से बचाव के लिये बीज को स्टे्रप्टोमाईसिन 500 पीपीएम से उपचारित करना लाभदायक है।


धनिया में पौध अंतराल

पंक्तियों में बुआई 25-40 सेमी. तक की जाती है एवं पौधों के बीच की दूरी 5 सेमी. तक रखी जाती है। बीज को 2-3 सेमी. गहराई में बोना चाहिए।


धनि‍ये के खेत की सिंचाई

धनिया की पत्तियों को बराबर हरा-भरा एवं मुलायम तथा रसीला रखने के लिए बराबर एवं कम अन्तराल पर सिंचाई करने की आवश्यकता होती है। सिंचाई की कुल संख्या भूमि के प्रकार एवं मौसम पर निर्भर होती है। भारी मिट्टी में लगभग 3-4 बार एवं हल्की भूमि में 5-6 बार सिंचाई करनी चाहिए।

असिंचित धनिया की अच्छी पैदावार लेने के लिए गोबर खाद 20 टन/हे. के साथ 40कि.ग्रा. नत्रजन, 30 कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा.पोटाश तथा 20 कि.ग्रा.सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से तथा 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40कि.ग्रा. स्फुर, 20 कि.ग्रा.पोटाश तथा 20कि.ग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचित फसल के लिये उपयोग करें।


धनि‍ये की किस्में एवं प्रजातियाँ

यह किस्म गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय पंतनगर द्वारा विकसित की गई है। यह किस्म पत्ती एवं दाने दोनों के लिए उत्तम मानी गयी है। इसकी हरी पत्तियों की उत्पादन क्षमता 50-75 कुन्तल प्रति हेक्टेयर एवं दाने की उत्पादन क्षमता 19-25 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है। यह किस्म मैदानी क्षेत्रों के अलावा घाटी एवं मध्यम तथा ऊॅंचाई वाले पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होती है। यह किस्म स्टेम गाँल नामक रोग के प्रति प्रतिरोधी है।

कोयम्बटोर 1: यह किस्म तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर से चयन द्वारा विकसित की गयी है। इस किस्म को सन् 1972 में तमिलनाडु के दक्षिण क्षेत्रों में जो असिंचित क्षेत्र के नाम से जाना जाता है, में उगाने की संस्तुति की गयी है। इसके पौधे लम्बे होते हैं एवं प्रत्येक पौधों में अधिक पत्तियों के गुच्छे बनते हैं। यह किस्म पत्ती एवं बीज की उत्पादन दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस किस्म पर ग्रीन गोल्ड नामक बीमारी का कोई असर नहीं पड़ता है।

कोयम्बटोर 2: यह किस्म भी कोयम्बटूर-1 की श्रंखला है एवं इस किस्म को गुजरात के पी-2 किस्म से चयन किया गया है एवं यह 1985 में अनुमोदित की गई थी। यह किस्म भी पत्ती एवं बीज की दृष्टि से उत्तम है। यह किस्म अजैविक रोधी जैसे बाढ़, सूखा, लवणीय एवं क्षारीय भूमि के प्रति सहिष्णु है। इस किस्म के पौधे सीधे बढ़ते हैं एवं मध्यम ऊॅचाई के होते हैं। इस किस्म को बोआई के 40 दिन बाद हरी पत्तियों के रूप में उत्पादन मिलने लगता है। इसकी उत्पादन क्षमता दाने की दृष्टि से 5.2 कुन्तल प्रति हेक्टेयर एवं पत्तियों की दृष्टि से 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक होती है।

कोयम्बटोर 3: इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की ए0सी0सी0 695 लाइन से विशुध्द वंशक्रम चयन द्वारा तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा विकसित की गई है। इसके बीज की उत्पादन क्षमता 6.5 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है ।


पत्तियों की तुड़ाई एवं भण्डारण

धनिया में हरी पत्तियों की तुड़ाई, बीज को बुआई से लगभग 16-20 दिन बाद की जा सकती है। इस समय तक इसके पौधे 5-6 से.मी. की ऊंचाई के हो जाते है। पत्तियों की तुड़ाई बुआई के 60-70 दिन बाद तक जब तक उसमें पुष्प नहीं आ जाते हैं तब तक तुड़ाई करते रहते हैं। इसके अलावा यदि धनिया को पत्ती एवं बीज दोनों उद्देश्य से उगाया जाए तो पत्तियों की 1 से 2 बार कटाई करने के बाद बीज के लिए छोड़ देते हैं। उपज – धनिया के बीज की औसत उत्पादन क्षमता 6-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है। हरी पत्तियों की दृष्टि से इसकी उत्पादन क्षमता 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है ।


धनि‍यॉं की उपज

धनिया की औसत उत्पादन क्षमता 6-10 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है। कटाई के समय फलों में 20 प्रतिशत से अधिक नमी रहती है जिसको सुख करके 9-10 प्रतिशत तक रखते हैं। हरी पत्तियों की दृष्टि से इसकी उत्पादन क्षमता 100 कुन्तल प्रति हेक्टेयर तक होती है।


अन्त: सस्य क्रियायें

धनिया में पौधों को खरपतवार से मुक्त रखना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसके लिए धनिया में दो से तीन बार निराई-गुड़ाई करें। पहली निराई बुआई अंकुरण से 20-30 दिन बाद आरम्भ करें। जबकि दूसरी एवं तीसरी 20-25 दिनों के अंतराल पर करें। खरपतवार नियंत्रण हेतु अनेक खरपतवारनाशी का प्रयोग भी करते हैं,जिनमें प्रमुख रूप से लिनूरान, आक्नोडियजात, प्रोमेटिन, प्रोवेमिल इत्यादि का प्रयोग करने से खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है।